Wednesday 10 June 2015

सिक्की कला


सिक्की कला
भारी बारिश के बाद पानी में डूबे क्षेत्रों में उपजने वाली सिक्की घास के फूल से निर्मित हस्तशिल्प, घरेलू उपयोग के सामान, डलिया आदि मिथिलांचल क्षेत्र मधुबनी, दरभंगा और सीतामढी और उत्तर बिहार के अन्य कई जिलों में काफी प्रचलित हैं.
मिथिलांचल की सिक्की कला की जानकार रानी झा बताती हैं कि अपने विशिष्ट सौंदर्य के कारण सिक्की से निर्मित घरेलू उपयोग की डलिया, डोलची
और अन्य सजावट के सामान शहरों में भी बड़े घरों में सजावट के सामान के रूप में लोकप्रिय हो रहे हैं.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सिक्की घास, खर और मूंज घास समाज के गरीब और महिला वर्ग को भी सहारा देते हैं. दलित और गरीब तालाब, दियारा और पोखरों में उपजी घास को काटकर हाट में बेचते हैं. बाद में बनी हुई कलाकृतियां भी बाजार में बिकती हैं और महिलाओं के आय का स्रोत बनती हैं.
सिक्की कला की विशेषज्ञ कहती हैं कि आधुनिक कलाकार समय के अनुरुप सिक्की कला को परिवर्तित कर रहे हैं अब वे फूलदान, पेन स्टैंड, कुशन,
पेपरवेट, कान की बाली, अंगूठी और चूड़ियां आदि भी बनाकर सिक्की की कला के स्वरुप को बचाने का प्रयास कर रहे हैं.
अपने सुनहरे रंग के कारण सिक्की सुनहरी घास :गोल्डेन ग्रास: की कला के रूप में भी जानी जाती है। सिक्की घास के साथ दो अन्य घास मूंज और
खर का भी उपयोग होता है. लोहे का बना तकुआ, सुई, छुरी और कैंची की मदद से ही सिक्की के हस्तशिल्प का काम होता है.सिक्की घास को गर्म पानी में उबाल उसे रंगा जाता है तब रंग बिरंगे साजो सामान बनते हैं। इस कारण से यह पर्यावरण के अनुकूल होता है.

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