Thursday 25 June 2015

मुग़लकालीन चित्रकला

भारत में चित्रकला के विकास में अधिकांश राजाओं ने अपना-अपना योगदान दिया है, लेकिन मुग़ल शासकों का योगदान इसमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। मुग़ल शासकों द्वारा करवाई चित्रकारी में ईरानी और फ़ारसी प्रभाव साफ़ दिखाई देता है। मुग़ल चित्रकारों ने एक नई चित्रकला शैली को विकसित कर दिया था। इस शैली ने भारत में अपनी एक ख़ास जगह बनाई है। वे मुग़ल शासक जिन्होंने चित्रकला के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। उन्होंने राजदरबार, शिकार तथा युद्ध के दृश्यों से सम्बन्धित नए विषयों को आरम्भ किया तथा नए रंगों और आकारों की शुरुआत की। उन्होंने चित्रकला की ऐसी जीवंत परम्परा की नींव डाली, जो मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद भी देश के विभिन्न भागों में जीवित रही। इस शैली की समृद्धी का एक मुख्य कारण यह भी था कि, भारत में चित्रकला की बहुत पुरानी परम्परा थी। यद्यपि बारहवीं शताब्दी के पहले के ताड़पत्र उपलब्ध नहीं हैं, जिनसे चित्रकला की शैली का पता चल सके, अजन्ता के चित्र इस समृद्ध परम्परा के सार्थक प्रमाण हैं। लगता है कि आठवीं शताब्दी के बाद चित्रकला की परम्परा का ह्रास हुआ, पर तेरहवीं शताब्दी के बाद की ताड़पत्र की पांडुलिपियों तथा चित्रित जैन पांडुलिपियों से सिद्ध हो जाता है कि, यह परम्परा मरी नहीं थी।




पन्द्रहवीं शताब्दी में जैनियों के अलावा मालवा तथा गुजरात जैसे क्षेत्रीय राज्यों में भी चित्रकारों को संरक्षण प्रदान किया जाता था। लेकिन सही अर्थों में इस परम्परा का पुनरुत्थान अकबर के काल में ही हुआ। जब हुमायूँ ईरान के शाह दरबार में था, उसने दो कुशल चित्रकारों को संरक्षण दिया और बाद में ये दोनों उसके साथ भारत आए। इन्हीं के नेतृत्व में अकबर के काल में चित्रकला को एक राजसी 'कारखाने' के रूप में संगठित किया गया। देश के विभिन्न क्षेत्रों से बड़ी संख्या में चित्रकारों को आमंत्रित किया गया। इनमें से कई निम्न जातियों के थे। आरम्भ से ही हिन्दू तथा मुसलमान साथ-साथ कार्य करते थे। इसी प्रकार अकबर के राजदरबार के दो प्रसिद्ध चित्रकार 'जसवंत' तथा 'दसावन' थे। चित्रकला के इस केन्द्र का विकास बड़ी शीघ्रता से हुआ और इसने बड़ी प्रसिद्धी हासिल कर ली। फ़ारसी कहानियों को चित्रित करने के बाद इन्हें महाभारत, अकबरनामा तथा अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की चित्रकारी का काम सौंपा गया। इस प्रकार भारतीय विषयों तथा भारतीय दृश्यों पर चित्रकारी करने का रिवाज लोकप्रिय होने लगा और इससे चित्रकला पर ईरानी प्रभाव को कम करने में सहायता मिली। भारत के रंगों, जैसे फ़िरोजी रंग तथा भारतीय लाल रंग का इस्तेमाल होने लगा। सबसे मुख्य बात यह हुई कि ईरानी शैली के सपाट प्रभाव का स्थान भारतीय शैली के वृत्ताकार प्रभाव ने लिया और इससे चित्रों में त्रिविनितीय प्रभाव आ गया।

Wednesday 24 June 2015

भारतीय स्थापत्य कला

मध्य प्रदेश की प्रसिद्ध भीमबेटका की गुफाएं भोपाल से 46 किलोमीटर दक्षिण में स्थित हैं. यह प्रागैतिहासिक कला का प्रहरी होने के साथ ही भारतीय स्थापत्य कला का अनुपम खजाना है.
वास्तव में, इन गुफाओं की पहचान देश के सबसे बड़े प्रागैतिहासिक कला के खजाने के रूप में किया जाता है. भारत के प्रसिद्ध पुरातत्‍व विशेषज्ञ डॉक्टर वीएस वाकांकर ने इन गुफाओं की खोज की थी. 1958 में उन्होंने नागपुर जाने के रास्ते में अचानक ही दूर के एक पहाड़ी से इन गुफाओं को चिह्नित किया. भीमबेटका नाम भीम और वाटिका, दो शब्दों से मिल कर बना है. पौराणिक महाभारत कथा से इसका संबंध है. इसका नाम महाभारत काल के पांच पांडवों में से एक भीम के नाम पर पड़ा है.
भीमबेटका गुफाओं



की खोज से इस क्षेत्र को अपार प्रसिद्धि मिली. यह पूरा क्षेत्र गुफाओं से पटा है, यहां करीब 600 गुफाएं हैं. यह पूरा क्षेत्र खड़े और बिखरे पत्थरों के बीच सागवान और सखुआ पेड़ों से अटा पड़ा है. इसे यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल में शुमार किया है. इनमें से कुछ गुफाओं में उकेरे हुए चित्र कई युगों पुराने हैं.
वास्तव में, ये गुफाचित्र ही यहां के प्रमुख आकर्षण हैं और ये ऑस्ट्रेलिया के सवाना क्षेत्र और फ्रांस के आदिवासी शैल चित्रों से मिलते हैं जो कालीहारी मरुस्थल के बौनों द्वारा किया गया है. चूंकि, इन गुफाओं का इस्तेमाल विभिन्न कालों में आदिमानवों ने अपने घर के रूप में किया, इसलिए यहां उकेरे गए पेंटिंग्स उनकी जीवनशैली और सांसारिक गतिविधियों को दर्शाते हैं. मौलिक रूपरेखा और रंगों के निपुण चयन ने हमारे पूर्वजों की इन गतिविधियों में जान डाल दी है.
विभिन्न सामुदायिक गतिविधियां जैसे- जन्म, मरण, धार्मिक अनुष्ठान, नृत्य, शिकार खेलना या आखेट दृष्य, जानवरों की लड़ाइयां और आमोद-प्रमोद को इन चित्रों में स्थान दिया गया है. गैंडा, बाघ, जंगली भैंस, भालू, मृग, सूअर, शेर, हाथी, छिपकली इत्यादि को इन चित्रों में देखा जा सकता है. यह देखना आश्चर्यजनक है कि इन पेंटिंग्स में जो रंग भरे गए थे वो कई युगों बाद अभी तक वैसे ही बने हुए हैं. इन पेंटिंग्स में आमतौर पर प्राकृतिक लाल और सफेद रंगों का प्रयोग किया गया है. अकसर इनमें हरे और पीले रंग का प्रयोग भी किया गया है.
यहां जो सबसे पुरानी पेंटिंग है वो करीब 12 हजार साल पुरानी है जबकि सबसे नवीन पेंटिंग हजार साल पुरानी. सैलानियों के लिए केवल 12 गुफाएं खुली हैं .

Friday 19 June 2015

घड़वा कला

छत्तीसगढ़ में बस्तर की घडवा कला अथवा ढोकरा कला विश्व प्रसिद्ध है। मिट्टी, मोम और धातु की सम्मिलित है इस कलासाधना से जो सृजित होता है, उसके प्रति मन सहज ही आकर्षित होता है। इसमें कलाकृति धातु की बनती है लेकिन कलाकार उसे मोम में साधता है। बस्तर में मुख्य रूप से से घसिया जनजाति ने घड़वा कला को साधा और शिखर तक पहुँचाया। घसिया के रूप में इस जनजाति को पहचान रियासतकाल में उनके कार्य को ले कर हुई। जानकार कहते हैं कि ये जनजाति दिनो घोड़ों के लिए घास काटने का कार्य किया करती थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि घड़वा कला को किसी काल विशेष से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। मोहनजोदाडो में ईसा से तीन हजार साल पहले प्राप्त एक नृत्य करती लड़की की प्रतिमा लगभग उसी तकनीक पर आधारित है जिसपर बस्तर का घड़वा शिल्प आज कार्य कर रहा है।

Sunday 14 June 2015

वरली

भारत की समृद्ध कला परंपरा में लोक कलाओं का गहरा रंग है। महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में वरली जाति के आदिवासियों का निवास है। इस आदिवासी जाति की कला ही वरली लोक कला के नाम से जानी जाती है। यह जन जाति महाराष्ट्र के दक्षिण से गुजरात की सीमा तक फैली हुई है। वरली लोक कला कितनी पुरानी है यह कहना कठिन है । कला में कहानियों को चित्रित किया गया है इससे अनुमान होता है कि इसका प्रारंभ लिखने पढ़ने की कला से भी पहले हो चुका होगा लेकिन पुरातत्व वेत्ताओं का विश्वास है कि यह कला दसवी शताब्दी में लोकप्रिय हुयी। इस क्षेत्र पर हिन्दू, मुस्लिम,पुर्तगाली और अंग्रज़ी शासकों ने राज्य किया और सभी ने इसे प्रोत्साहित किया। सत्रहवें दशक से इसकी लोकप्रियता का एक नया युग प्रारंभ हुआ जब इनको बाज़ार में लाया गया।
वरली कलाकृतियाँ विवाह के समय विशेष रूप से बनायी जाती थीं। इन्हें शुभ माना जाता था और इसके बिना विवाह को अधूरा समझा जाता था। प्रकृति की प्रेमी यह जनजाति अपना प्रकृतिप्रेम वरली कला में बड़ी गहराई से चित्रित करती हैं। त्रिकोण आकृतियों में ढले आदमी और जानवर, रेखाओं में चित्रित हाथ पाँव तथा ज्यामिति की तरह बिन्दु और रेखाओं से बने इन चित्रों को महिलाएँ घर में मिट्टी की दीवारों पर बनती थीं।
एक विशेषता इस कला में यह होती है कि इसमे सीधी रेखा कहीं नजर नहीं आएगी। बिन्दु से बिन्दु ही जोड़ कर रेखा खींची जाती है। इन्हीं के सहारे आदमी, प्राणी और पेड़-पौधों की सारी गतिविधियाँ प्रदर्शित की जाति है। विवाह, पुरूष, स्त्रीं, बच्चे, पेड़-पौधे, पशुपक्षी और खेत - यहीं विशेष रूप से इन कलाकृतियों के विषय होते है। सामाजिक गतिविधियों को गोबर-मिट्टी से लेपी हुई सतह पर चावल के आटे के पानी में पानी मिला कर बनाए गए घोल से रंगा जाता है। सामाजिक अवसरों के अतिरिक्त दिवाली, होली के उत्सवों पर भी घर की बाहरी दीवारों पर चौक बनाए जाते हैं। यह सारे त्योहार खेतों में कटाई के समय ही आते हैं इसलिए इस समय कला में भी ताजे चावल का आटा इस्तेमाल किया जाता है। रँगने का काम अभी भी पौधों की छोटी-छोटी तीलियों से ही किया जाता है। दो चित्रों में अच्छा खासा अंतर होता है। एक एक चित्र अलग अलग घटनाएँ दर्शाता है।



Saturday 13 June 2015

सोहराई कला



सोहराई कला एक आदिवासी कला है. इसका प्रचलन हजारीबाग जिले के बादम क्षेत्र में आज से कई वर्ष पूर्व शुरू हुआ था. इस क्षेत्र के इस्को पहाड़ियों की गुफाओं में आज भी इस कला के नमूने देखे जा सकते हैं. कहा जाता है कि बादम राजाओं ने इस कला को काफी प्रोत्साहित किया था. जिसकी वजह से यह कला गुफाओं की दीवारों से निकलकर घरों की दीवारों में अपना स्थान बना पाने में सफल हुई थी.

झारखंडी संस्कृति में सोहराई कला का महत्व सदियों से रहा है. बदलते परिवेश में कथित आधुनिकता के नाम पर लोगों का दुर्भाग्यवश इस कला के प्रति उपेक्षाभाव इसके अस्तित्व पर संकट बनकर आ खड़ा हुआ है. राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सोहराई पर्व के दौरान देसज दुधि माटी से सजे घरों की दीवारों पर महिलाओं के हाथों के हुनर अब बमुश्किल से देखने को मिलते हैं. अब दुधि माटी की जगह चूने ने ले ली है.

उस समय ऐसा कोई घर नहीं था जहां की महिलाएं इस कला से अपने घरों-दीवारों को सजाना नहीं जानती हों. आज स्थिति बदल चुकी है. अब तो इसके कलाकार और इसे जाननेवाले लोगों की संख्या गिनती में रह गयी है. ऐसे गिने-चुने नामों में से एक नाम है रूकमणी देवी का. हजारीबाग जिले के बड़कागांव प्रखंड की रहनेवाली रूकमणी कहती है कि यह कला मैंने अपनी मां से सीखी थी और मां ने अपनी मां से. वह बतलाती है कि आज इस कला को सीखना तो दूर, लोग इसे जानते तक नहीं हैं.

बकौल रूकमणी आदिवासी संस्कृति में इस कला का महत्व जीवन में उन्नति से लगाया गया था, तभी इसका उपयोग दीपावली और शादी-विवाह जैसे अवसरों पर किया जाता था. जिससे कि धन और वंश दोनों की वृद्धि हो सके. रूकमणी बताती है कि इस कला के पीछे एक इतिहास छिपा है. जिसे अधिकांश लोग जानते तक नहीं हैं.

वह बताती हैं कि बादम राज में जब किसी युवराज का विवाह होता था और जिस कमरे में युवराज अपनी नवविवाहिता से पहली बार मिलता था उस कमरे की दीवारों पर यादगार के लिये कुछ चिन्ह अंकित किये जाते थे. ये चिन्ह ज्यादातर सफेद मिट्टी, लाल मिट्टी, काली मिट्टी या गोबर से बनाये जाते थे. इस कला में कुछ लिपि का भी इस्तेमाल किया जाता था जिसे वृद्धि मंत्र कहते थे.

बाद के दिनों में इस लिपि की जगह कलाकृतियों ने ले ली. जिसमें फूल, पत्तियां एवं प्रकृति से जुड़ी चीजें शामिल होने लगीं. कालांतर में इन चिन्हों को सोहराई या कोहबर कला के रूप में जाना जाने लगा. धीरे-धीरे यह कला राजाओं के घरों से निकलकर पूरे समाज में फैल गयी. राजाओं ने भी इस वृद्धि कला को घर-घर तक पहुंचाने में काफी मदद की. पर आज मदद तो दूर इस सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण के लिये भी कोई आगे नहीं आता.

ऐसे में शायद इस कला को गुमनामी की गुफाओं में लुप्त होने से कोई नहीं बचा पायेगा और आनेवाली पीढ़ियां सोहराई को इतिहास के पन्नों में ही ढूंढा करेंगी.

Friday 12 June 2015

लेपाक्षी टेम्पल



लेपाक्षी आंध्रप्रदेश राज्य के अनंतपुर में स्तिथ एक छोटा सा गाँव है। पौराणिक मान्यता है की यह रामायणकालीन वही जगह है जहाँ रावण से युद्ध के पश्चात घायल हो के जटायू गिरा था। यह गाँव 16 वि शताब्दी में बने अपने कलात्मक लेपाक्षी मंदिर के लिए जाना जाता है। यह मंदिर काफी बड़ा है तथा इस मंदिर परिसर में भगवान शिव, भगवान विष्णु और भगवान वीरभद्र को समर्पित तीन मंदिर है। 
लेपाक्षी मंदिर को हैंगिंग पिलर टेम्पल के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर कुल 70 खम्भों पर खड़ा है जिसमे से एक खम्भा जमीन को छूता नहीं है बल्कि हवा में ही लटका हुआ है। इस एक झूलते हुए खम्भे के कारण इसे हैंगिंग टेम्पल कहा जाता है। यह पिलर भी पहले जमीन से जुड़ा हुआ था पर एक ब्रिटिश इंजीनियर ने यह जानने के लिए की यह मंदिर पिलर पर कैसे टिका हुआ हुआ है, इसको हिला दिया तब से यह पिलर झूलता हुआ ही है। यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं की मान्यता है की इसके नीचे से कपडा निकलने से सुख सृमद्धि बढ़ती है।
इस मंदिर का निर्माण 1583 में दो भाइयों विरुपन्ना और वीरन्ना ने करा था जो की विजयनगर राजा के यहाँ काम करते थे। हालांकि पौराणिक मान्यता यह है की लेपाक्षी मंदिर परिसर में स्तिथ विभद्र मंदिर का निर्माण ऋषि अगस्तय ने करवाया था।
एक अन्य मान्यता यह है की यह रामायणकालीन वही स्थान है जहाँ रावण से युद्ध के पश्चात घायल हो के जटायू गिरा था। जब राम सीता को तलाशते हुए वहां पहुंचे तो उन्होंने उस घायल पक्षी को देख कर कहा 'ले पाक्षी' यानी की उठो पक्षी। ले पाक्षी एक तेलगु शब्द है।
लेपाक्षी मंदिर से 200 दूर मेन रोड पर एक ही पत्थर से बनी विशाल नंदी प्रतिमा है जो की 8. 23 मीटर (27 फ़ीट) लम्बी, 4.5 मीटर (15 फ़ीट) ऊंची है। यह एक ही पत्थर से बनी नंदी की सबसे विशाल प्रतिमा है जबकि एक ही पत्थर से बनी दूसरी सबसे बड़ी प्रतिमा है (प्रथम स्थान गोमतेश्वर की मूर्ति का है)।
विभद्र मंदिर परिसर में एक ही पत्थर से बनी विशाल नागलिंग प्रतिमा भी स्थापित है जो की संभवतया सबसे विशाल नागलिंग प्रतिमा हैं। इस काले ग्रेनाइट से बनी प्रतिमा में एक शिवलिंग के ऊपर सात फन वाला नाग फन फैलाय बैठा है।

Wednesday 10 June 2015

ब़ृहदेश्‍वर मंदिर चोल स्थापत्य कला




ब़ृहदेश्‍वर मंदिर चोल वास्‍तुकला का शानदार उदाहरण है, जिनका निर्माण महाराजा राजा राज (985-1012.ए.डी.) द्वारा कराया गया था। इस मंदिर के चारों ओर सुंदर अक्षरों में नक्‍काशी द्वारा लिखे गए शिला लेखों की एक लंबी श्रृंखला शासक के व्‍यक्तित्‍व की अपार महानता को दर्शाते हैं।
बृहदेश्‍वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित एक भवन है और यहां इन्‍होंने भगवान का नाम अपने बाद राज राजेश्‍वरम उडयार रखा है। यह मंदिर ग्रेनाइट से निर्मित है और अधिकांशत: पत्‍थर के बड़े खण्‍ड इसमें इस्‍तेमाल किए गए हैं, ये शिलाखण्‍ड आस पास उपलब्‍ध नहीं है इसलिए इन्‍हें किसी दूर के स्‍थान से लाया गया था। यह मंदिर एक फैले हुए अंदरुनी प्रकार में बनाया गया है जो 240.90 मीटर लम्‍बा ( पूर्व – पश्चिम) और 122 मीटर चौड़ा (उत्तर – दक्षिण) है और इसमें पूर्व दिशा में गोपुर के साथ अन्‍य तीन साधारण तोरण प्रवेश द्वार प्रत्‍येक पार्श्‍व पर और तीसरा पिछले सिरे पर है। प्रकार के चारों ओर परिवारालय के साथ दो मंजिला मालिका है।
एक विशाल गुम्‍बद के आकार का शिखर अष्‍टभुजा वाला है और यह ग्रेनाइट के एक शिला खण्‍ड पर रखा हुआ है तथा इसका घेरा 7.8 मीटर और वज़न 80 टन है। उप पित और अदिष्‍ठानम अक्षीय रूप से रखी गई सभी इकाइयों के लिए सामान्‍य है जैसे कि अर्धमाह और मुख मंडपम तथा ये मुख्‍य गर्भ गृह से जुड़े हैं किन्‍तु यहां पहुंचने के रास्‍ता उत्तर – दक्षिण दिशा से अर्ध मंडपम से होकर निकालता है, जिसमें विशाल सोपान हैं। ढलाई वाला प्लिंथ विस्‍तृत रूप से निर्माता शासक के शिलालेखों से भरपूर है जो उनकी अनेक उपलब्धियों का वर्णन करता है, पवित्र कार्यों और मंदिर से जुड़ी संगठनात्‍मक घटनों का वर्णन करता है। गर्भ गृह के अंदर बृहत लिंग 8.7 मीटर ऊंचा है। दीवारों पर विशाल आकार में इनका चित्रात्‍मक प्रस्‍तुतिकरण है और अंदर के मार्ग में दुर्गा, लक्ष्‍मी, सरस्‍वती और भिक्षाटन, वीरभद्र कालांतक, नटेश, अर्धनारीश्‍वर और अलिंगाना रूप में शिव को दर्शाया गया है। अंदर की ओर दीवार के निचले हिस्‍से में भित्ति चित्र चोल तथा उनके बाद की अवधि के उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है।उत्‍कृष्‍ट कलाओं को मंदिरों की सेवा में प्रोत्‍साहन दिया जाता था, शिल्‍पकला और चित्रकला को गर्भ गृह के आस पास के रास्‍ते में और यहां तक की महान चोल ग्रंथ और तमिल पत्र में दिए गए शिला लेख इस बात को दर्शाते हैं कि राजाराज के शासनकाल में इन महान कलाओं ने कैसे प्रगति की।
सरफौजी, स्‍थानीय मराठा शासक ने गणपति मठ का दोबारा निर्माण कराया। तंजौर चित्रकला के जाने माने समूह नायकन को चोल भित्ति चित्रों में प्रदर्शित किया गया है।

थंगक कलाकृतियाँ



 थंगक कलाकृतियाँ
मनोहर सौन्दर्य और आध्यात्मिक दृष्टिकोण का अदभुत समन्वय थंगक कलाकृतियाँ, पूर्णरूप से गौतमबुद्ध और बौद्धदर्शन को समर्पित हैं। ऐसा विश्वास है कि बौद्ध धर्म का प्रचार करते हुए जब महान भिक्षुक गुरू भारत से तिब्बत आए तो शिक्षा और प्रचार की सामग्री में ये चित्र और हस्तलिपियाँ शामिल थीं। तिब्बती कलाकारों को इन चित्रों ने बड़ा प्रभावित किया और गौतम बुद्ध से संबंधित विषयों वाली इस शैली को अपनाते हुए उन्होंने, इसका नाम थंगक रखा।
आज यह तिब्बती चित्रकारों की कलात्मक परम्परा तो हैं ही, इनका धार्मिक महत्व भी कम नहीं है। भारत में जन्म लेने और फिर तिब्बत में विकसित होने के कारण यह शैली भारत और तिब्बत के घनिष्ट सम्बंधों की स्वर्णिम सूत्र भी है।
इन चित्रों के विषय गहन और रहस्यमय हैं। महायान सूत्र के आशावाद और वज्रयान सूत्र के तांत्रिक मूल्यों से परिपूर्ण ये चित्र हर विचारधारा के सूक्ष्म भावों को स्पष्टता से व्यक्त करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन चित्रों पर केवल दृष्टिपात करने मात्र से मनुष्य के सांसारिक कष्ट दूर हो जाते हैं।
सामान्य रूप से विषयों के आधार पर इन चित्रों को पांच भागों में बाँटा जा सकता है। गौतम बुद्ध व उनसे संबंधित अन्य धार्मिक चरित्र, देवी देवता, बौद्ध दर्शन, मंडल जो ब्रह्माण्ड का प्रतीक है और उपदेश। विस्तृत और समर्पित रूप से रचा गया एक थंगक धार्मिक महत्व का विस्तृत चित्रण होता है।
थंगक को बनाने की शैली अपने आप में अत्यंत विशिष्ट है जिसमें आध्यात्मिक प्रतीकों का विशेष महत्व होता है। ये सूती कपड़े के ऊपर बनाए जाते हैं। पृष्ठभूमि सफेद होती है लेकिन इसको महीन कारीगरी से भरा जा सकता है। रंगों का अपना अलग महत्व होता है। सफेद रंग शांति का प्रतीक माना गया है, सुनहरा नवजीवन, आनंद और निर्वाण का, लाल रंग प्रेम और द्वेष दोनों की पराकाष्ठा का, काला रंग क्रोध का, पीला अनुकंपा और हरा चेतना व बोध का। थंगक के लिये प्रयोग में लाए जाने वाले ये सभी रंग वनस्पति अथवा खनिज से प्राकृतिक रूप मे प्राप्त किये जाते हैं।
थंगक कलाकृतियाँ आस्था, समर्पण, प्रेम और गहन धार्मिक भावना के साथ बनाई जाती हैं। इन्हें ईश्वर की महान शक्ति से सीधा संबंधित समझा जाता है। कलाकारों को एक थंगक बनाने में महीनों लगते हैं क्यों कि यह निरंतर परिश्रम और लंबे समय की कारीगरी है। ये चित्र बहुत ही बारीक और उत्कृष्ट होते हैं अत: एक बार तैयार हो जाने के बाद इन्हें आदर के साथ संभाल कर रखा जाता है । अगर इन्हें दीवार पर नहीं लगाया गया तो रसायनों से संरक्षित कर दिया जाता है।

फड़

फड़ राजस्थान में भीलवाड़ा ज़िले की विशेषता है और भीलवाड़ा ज़िले की भोपा जनजाति की विरासत भी। ये चित्र केवल कलाकृति नहीं है बल्कि कला, संगीत और साहित्य की एक सम्पूर्ण संस्कृति है, जिसे वे फड़ पर चित्रित करते और गीतों में बाँचते हैं। चित्र और गीत दोनों को ही फड़ कहा जाता है। भारतीय संस्कृति की इस ऐतिहासिक धरोहर को वर्षों से उन्होंने अपनी परंपरा में संभाल कर रखा और विकसित किया है।
फड़ में आयताकार कपड़े पर स्थानीय राजाओं पबूजी और रामदेवजी के जीवन की घटनाओं को विस्तृत रूप से चित्रित किया जाता है। आकार में लगभग पाँच मीटर लंबे और डेढ़ मीटर चौडे इस सूती या रेशमी कपड़े पर लाल, नारंगी, काले, गहरे हरे जैसे चटक रंगों का प्रयोग होता है। पहले बाहरी किनारे को ठप्पों की सहायता से बनाया जाता है बाद में भीतर की ओर कथा की विस्तृत घटनाओं को बनाया जाता है। दोनों ओर बाँस का दंडनुमा आधार बनाया जाता है जिसपर इसको लपेट कर रखा और ले जाया जा सके।
आधुनिक फड़ में महाकाव्यों के नायकों और देवताओं के जीवनचरित्र को भी चित्रित किया जाने लगा है। इनका आकार भी पर्यटकों की सुविधा के लिये छोटा बनाया जाने लगा है। फड़ की कलाकृतियाँ राजस्थली अथवा राजस्थान हस्तकला के किसी भी प्रतिष्ठान से खरीदी जा सकती हैं। इस चित्रकला के साथ ही जुड़ा है लोक संगीत का वह शास्त्र जिसमें नायकों की वीरता का वर्णन मिलता है। भोपों द्वारा विशेष रूप से गाए जाने वाले इस संगीत में विशेष वाद्यों को प्रयोग होता है।

सिक्की कला


सिक्की कला
भारी बारिश के बाद पानी में डूबे क्षेत्रों में उपजने वाली सिक्की घास के फूल से निर्मित हस्तशिल्प, घरेलू उपयोग के सामान, डलिया आदि मिथिलांचल क्षेत्र मधुबनी, दरभंगा और सीतामढी और उत्तर बिहार के अन्य कई जिलों में काफी प्रचलित हैं.
मिथिलांचल की सिक्की कला की जानकार रानी झा बताती हैं कि अपने विशिष्ट सौंदर्य के कारण सिक्की से निर्मित घरेलू उपयोग की डलिया, डोलची
और अन्य सजावट के सामान शहरों में भी बड़े घरों में सजावट के सामान के रूप में लोकप्रिय हो रहे हैं.
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सिक्की घास, खर और मूंज घास समाज के गरीब और महिला वर्ग को भी सहारा देते हैं. दलित और गरीब तालाब, दियारा और पोखरों में उपजी घास को काटकर हाट में बेचते हैं. बाद में बनी हुई कलाकृतियां भी बाजार में बिकती हैं और महिलाओं के आय का स्रोत बनती हैं.
सिक्की कला की विशेषज्ञ कहती हैं कि आधुनिक कलाकार समय के अनुरुप सिक्की कला को परिवर्तित कर रहे हैं अब वे फूलदान, पेन स्टैंड, कुशन,
पेपरवेट, कान की बाली, अंगूठी और चूड़ियां आदि भी बनाकर सिक्की की कला के स्वरुप को बचाने का प्रयास कर रहे हैं.
अपने सुनहरे रंग के कारण सिक्की सुनहरी घास :गोल्डेन ग्रास: की कला के रूप में भी जानी जाती है। सिक्की घास के साथ दो अन्य घास मूंज और
खर का भी उपयोग होता है. लोहे का बना तकुआ, सुई, छुरी और कैंची की मदद से ही सिक्की के हस्तशिल्प का काम होता है.सिक्की घास को गर्म पानी में उबाल उसे रंगा जाता है तब रंग बिरंगे साजो सामान बनते हैं। इस कारण से यह पर्यावरण के अनुकूल होता है.

Tuesday 9 June 2015

‘कलमकारी’

‘कलमकारी’ का मतलब होता है ‘कलम से सजावट करना’।
 यह नाम मुगलों ने दिया था जो कोरोमंडल और गोलकोंडा इलाकों में इस हस्तशिल्प कला के बहुत बड़े संरक्षक थे। तीन हजार साल पुरानी यह हस्तकला आंध्रप्रदेश के दो गांवों श्रीकालहस्ति और मछलीपट्नम में पनपी। इन दोनों गांवों की कलमकारी की अपनी एक अलग खास शैली है। मछलीपट्नम पर तमाम एशिया में फैले मुसलमानों के साथ व्यापारिक रिश्तों का असर था, इसलिए यहां की कलमकारी शैली इस्लामिक खूबसूरती को संवारने का काम कर रही थी। श्रीकालहस्ति शैली पांच पंचभूत मंदिरों में से एक- श्रीकालहस्ति मंदिर, के संरक्षण में फली-फूली। इस वजह से यहां की कलमकारी शैली की प्रेरणा हिंदू पौराणिक कथाएं थीं।
कलमकारी पेंटिंग रेजिस्ट-डाइंग और हैंड प्रिंटिंग की एक जटिल और थकाऊ प्रक्रिया है। कपड़े पर कलमकारी पेंटिंग का काम शुरू करने और पूरा करने के बाद इनका काफी उपचार करना पड़ता है। पहले गाय या बकरी के गोबर में बने घोल से कपड़े पर सफेदी करके कुछ दिनों तक धूप में सुखाना होता है। फिर खमीर-उठे गुड़ और पानी में भिगो कर रखे गए बांस के नुकीले भाग से कपड़े पर रेखाकृतियां खींची जाती हैं। इसके बाद डाइज या रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। कपड़ों पर रंग पक्का करने वाले मॉर्डेंट के रूप में लोहा, टिन, तांबा और दूसरी धातुओं के खनिज लवणों की मदद से फलों, वनस्पतियों, जड़ों और पत्तियों के हिस्सों से रंग निकाल कर डाइज हासिल किए जाते हैं। कुछ रंगों के लिए फिटकिरी और मोम की भी जरूरत पड़ती है। हर रंग लगाने के बाद कलमकारी को धोया जाता है। पूरा होने से पहले कपड़े की तकरीबन बीस बार तक धुलाई होती है। गोबर, बीज, पौधे और मसले हुए फूलों के इस्तेमाल से पेंटिंग में बहुत-से ‘इफेक्ट्स’ लाए जाते हैं।