भारत में चित्रकला के विकास में अधिकांश राजाओं ने अपना-अपना योगदान दिया है, लेकिन मुग़ल शासकों का योगदान इसमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। मुग़ल शासकों द्वारा करवाई चित्रकारी में ईरानी और फ़ारसी प्रभाव साफ़ दिखाई देता है। मुग़ल चित्रकारों ने एक नई चित्रकला शैली को विकसित कर दिया था। इस शैली ने भारत में अपनी एक ख़ास जगह बनाई है। वे मुग़ल शासक जिन्होंने चित्रकला के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। उन्होंने राजदरबार, शिकार तथा युद्ध के दृश्यों से सम्बन्धित नए विषयों को आरम्भ किया तथा नए रंगों और आकारों की शुरुआत की। उन्होंने चित्रकला की ऐसी जीवंत परम्परा की नींव डाली, जो मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद भी देश के विभिन्न भागों में जीवित रही। इस शैली की समृद्धी का एक मुख्य कारण यह भी था कि, भारत में चित्रकला की बहुत पुरानी परम्परा थी। यद्यपि बारहवीं शताब्दी के पहले के ताड़पत्र उपलब्ध नहीं हैं, जिनसे चित्रकला की शैली का पता चल सके, अजन्ता के चित्र इस समृद्ध परम्परा के सार्थक प्रमाण हैं। लगता है कि आठवीं शताब्दी के बाद चित्रकला की परम्परा का ह्रास हुआ, पर तेरहवीं शताब्दी के बाद की ताड़पत्र की पांडुलिपियों तथा चित्रित जैन पांडुलिपियों से सिद्ध हो जाता है कि, यह परम्परा मरी नहीं थी।
पन्द्रहवीं शताब्दी में जैनियों के अलावा मालवा तथा गुजरात जैसे क्षेत्रीय राज्यों में भी चित्रकारों को संरक्षण प्रदान किया जाता था। लेकिन सही अर्थों में इस परम्परा का पुनरुत्थान अकबर के काल में ही हुआ। जब हुमायूँ ईरान के शाह दरबार में था, उसने दो कुशल चित्रकारों को संरक्षण दिया और बाद में ये दोनों उसके साथ भारत आए। इन्हीं के नेतृत्व में अकबर के काल में चित्रकला को एक राजसी 'कारखाने' के रूप में संगठित किया गया। देश के विभिन्न क्षेत्रों से बड़ी संख्या में चित्रकारों को आमंत्रित किया गया। इनमें से कई निम्न जातियों के थे। आरम्भ से ही हिन्दू तथा मुसलमान साथ-साथ कार्य करते थे। इसी प्रकार अकबर के राजदरबार के दो प्रसिद्ध चित्रकार 'जसवंत' तथा 'दसावन' थे। चित्रकला के इस केन्द्र का विकास बड़ी शीघ्रता से हुआ और इसने बड़ी प्रसिद्धी हासिल कर ली। फ़ारसी कहानियों को चित्रित करने के बाद इन्हें महाभारत, अकबरनामा तथा अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की चित्रकारी का काम सौंपा गया। इस प्रकार भारतीय विषयों तथा भारतीय दृश्यों पर चित्रकारी करने का रिवाज लोकप्रिय होने लगा और इससे चित्रकला पर ईरानी प्रभाव को कम करने में सहायता मिली। भारत के रंगों, जैसे फ़िरोजी रंग तथा भारतीय लाल रंग का इस्तेमाल होने लगा। सबसे मुख्य बात यह हुई कि ईरानी शैली के सपाट प्रभाव का स्थान भारतीय शैली के वृत्ताकार प्रभाव ने लिया और इससे चित्रों में त्रिविनितीय प्रभाव आ गया।